शमनुरू शिवशंकरप्पा की मौत से कर्नाटक की राजनीति एक ऐसे युग का अंत देख रही है, जिसमें एक व्यक्ति ने सिर्फ चुनाव जीते नहीं, बल्कि समुदाय की आवाज बनकर रहा। 95 वर्ष की आयु में रविवार, 14 दिसंबर 2025 को शाम 6:50 बजे बेंगलुरु के एक निजी अस्पताल में आयु संबंधी बीमारियों के कारण उनका निधन हो गया। ये वही विधायक थे जिन्होंने 92 साल की उम्र में 2023 के चुनाव में जीत हासिल की थी — देश के सबसे बुजुर्ग विधायक के तौर पर दर्ज। उनकी मौत ने केवल एक नेता को नहीं, बल्कि एक पूरा राजनीतिक संस्कृति का अंत भी दर्शाया है।
50 साल का राजनीतिक राज
शिवशंकरप्पा ने 1969 में दावणगेरे जिले की नगरपालिका से अपना राजनीतिक सफर शुरू किया। उसके बाद वे लगातार दावणगेरे दक्षिण विधानसभा क्षेत्र के लिए चुने गए — पाँच बार विधायक और एक बार लोकसभा सांसद। 1999 में लोकसभा चुनाव में हार के बावजूद, उनका प्रभाव घटा नहीं। उनके पुत्र एस एस मल्लिकार्जुन ने उसी साल उनकी सीट पर जीत हासिल की, जिससे एक राजनीतिक वंश का निर्माण हुआ। आज भी, दावणगेरे में शिवशंकरप्पा के नाम का जिक्र करना किसी चुनावी जीत की गारंटी माना जाता था।
लिंगायत समुदाय के अमर नेता
शिवशंकरप्पा केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि अखिल भारतीय वीरशैव महासभा के प्रमुख भी थे। इस पद के जरिए उन्होंने कर्नाटक के लिंगायत समुदाय को एक शक्तिशाली राजनीतिक इकाई बनाया। उनकी बात लिंगायत समुदाय के लिए आदेश की तरह मानी जाती थी। उन्होंने 2023 में जगदीश शेट्टार को कांग्रेस में शामिल करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई — एक ऐसा कदम जिसने पार्टी के लिंगायत वोट बैंक को मजबूत किया। उनकी अनुपस्थिति अब इस समुदाय के लिए एक बड़ा रिक्त स्थान है।
एक परिवार, एक राजनीतिक साम्राज्य
शिवशंकरप्पा का परिवार अब कर्नाटक की राजनीति का एक अहम हिस्सा है। उनके पुत्र एस एस मल्लिकार्जुन कर्नाटक सरकार में खान एवं भूविज्ञान तथा बागवानी मंत्री हैं। उनकी पुत्रवधू प्रभा मल्लिकार्जुन दावणगेरे से लोकसभा सांसद हैं। दोनों ही नेता अपने पिता के राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। 2023 के चुनाव में तो शिवशंकरप्पा और उनके पुत्र दोनों ही दावणगेरे में कांग्रेस के उम्मीदवार थे — एक ऐसा दृश्य जो भारत के अन्य क्षेत्रों में दुर्लभ है।
विवाद और विरोध
उनकी राजनीति हमेशा नरम नहीं रही। 2023 में उन्होंने भाजपा की उम्मीदवार गायत्री सिद्धेश्वरा के खिलाफ लैंगिक टिप्पणी की, जिसकी साइना नेहवाल और कांग्रेस के अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार ने आलोचना की। लेकिन यह विवाद भी उनकी अनूठी पहचान को दर्शाता है — वे ऐसे नेता थे जो अपनी बात कहते थे, चाहे वह कितनी भी अनुचित क्यों न हो। उनकी आवाज बुजुर्गों के लिए आशा थी, युवाओं के लिए चेतावनी।
राजनीति से उद्योग तक
शिवशंकरप्पा केवल राजनीति में ही सीमित नहीं थे। एक उद्योगपति के रूप में उनके पास एक क्रिकेट क्लब था, जो दावणगेरे के युवाओं के लिए एक प्रशिक्षण केंद्र बना हुआ था। वे अपनी यात्राओं के लिए हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल करते थे — एक शैली जो उनके समय में बहुत कम नेताओं के पास थी। उन्होंने शैक्षणिक संस्थानों की एक श्रृंखला भी स्थापित की, जिनमें लाखों बच्चों को शिक्षा मिली। ये सब उनकी राजनीति का हिस्सा था — जिसमें शक्ति और सेवा एक साथ चलती थीं।
क्या अब होगा?
शिवशंकरप्पा के निधन के बाद दावणगेरे क्षेत्र में राजनीतिक संतुलन बिल्कुल बदल सकता है। उनके परिवार के पास अभी भी नेतृत्व का अधिकार है, लेकिन क्या वे उसी स्तर का प्रभाव बना पाएंगे? लिंगायत समुदाय में अब नए नेता उभर रहे हैं — लेकिन क्या कोई भी उनकी जैसी विश्वास और व्यक्तिगत लोकप्रियता बना पाएगा? कांग्रेस के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। जब एक व्यक्ति एक समुदाय की आत्मा बन जाता है, तो उसकी जगह भरना असंभव हो जाता है।
Frequently Asked Questions
शमनुरू शिवशंकरप्पा किस तरह कर्नाटक की राजनीति में अपना प्रभाव बनाए रख पाए?
शिवशंकरप्पा ने 50 साल से अधिक समय तक दावणगेरे में अपनी निरंतर उपस्थिति, लिंगायत समुदाय के साथ गहरा जुड़ाव और व्यक्तिगत सेवा के जरिए अपना प्रभाव बनाए रखा। वे नियमित रूप से गाँव-गाँव घूमते, शिक्षा और उद्योग में निवेश करते, और अपने नेतृत्व को राजनीति से आगे बढ़ाते थे।
उनके निधन के बाद कांग्रेस के लिए क्या चुनौतियाँ हैं?
कांग्रेस के लिए दावणगेरे में लिंगायत वोट बैंक को बरकरार रखना बड़ी चुनौती है। शिवशंकरप्पा के बिना, उनके परिवार के नेता भी उसी स्तर की विश्वास योग्यता नहीं बना पाएंगे। भाजपा इस मौके का फायदा उठाने की कोशिश करेगी, जिससे इलाके में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है।
शिवशंकरप्पा के परिवार की राजनीतिक शक्ति क्या है?
उनके पुत्र एस एस मल्लिकार्जुन कर्नाटक सरकार के मंत्री हैं, और पुत्रवधू प्रभा मल्लिकार्जुन दावणगेरे से सांसद हैं। यह तीन पीढ़ियों का राजनीतिक वंश है, जिसने एक निश्चित इलाके में अपनी उपस्थिति बनाए रखी है। लेकिन अब यह वंश क्या बन पाएगा, यह अनिश्चित है।
उनके निधन के बाद लिंगायत समुदाय में क्या बदलाव हो सकता है?
लिंगायत समुदाय में अब नए नेता उभर रहे हैं, लेकिन कोई भी शिवशंकरप्पा जैसा सम्मान और विश्वास नहीं बना पाएगा। इससे समुदाय में विभाजन की संभावना है — कुछ लोग उनके परिवार के साथ रहेंगे, तो कुछ नए नेताओं की ओर झुकेंगे। यह एक आध्यात्मिक और राजनीतिक खालीपन है।
Arjun Kumar
दिसंबर 15, 2025 at 16:55 अपराह्न
ये सब बकवास है, एक आदमी के लिए इतना धुआँधार क्यों? जब तक वो जिवित थे, तब तक लोग उसके नाम से डरते थे, अब मर गए तो उनकी याद में नहीं, बल्कि उनके नाम के लिए एक बड़ा राजनीतिक घोटाला चल रहा है।